Sunday, August 18, 2013

Unleash Your Energy: Five Ways to Recharge Your Mind, Spirit and Productivity

Since experts say we all are truly complex bundles of energy, it makes sense to think about how we can manage, use and increase the amount of energy in our bodies and minds. Because when we are better energy managers, we can create better results in all areas of our lives.
The topic of personal energy is much larger than can be covered by a short article. In fact, while we should definitely think about our physical levels of energy that isn’t the point of this article. (Though I will say, eating better, eating less, exercising more and sleeping more – all things your Mother probably taught you – would be a pretty good place to start.)
Rather, in the next few words, let’s focus on gaining, refreshing and recharging your mental and emotional energy – because when you do you’ll become happier, less stressed and more productive.
Here are five great suggestions:
Unload your worries. Worry is one of the great energy sucks in life. When you look logically at the things you are worried about you will notice a couple of things: many (perhaps most) will never come true, and some are completely out of your control. As you unload yourself of these worries you begin to recharge your mind and soul! If there are things you are worried about that you can control, stop worrying and start taking action. That action will create more energy and relieve the energy drain caused by the worry. Unload your worries today.
Undo a wrong. Have someone you need to apologize to? Have something, large or small, weighing on your mind? All of that is wasted mental and emotional energy – all energy that can be recaptured by taking the steps to rectify or apologize or whatever else is needed. Only you know what it is, and when you do it, you’ll be replenished with energy almost immediately. Undo that wrong.
Uncalendar some of your time. OK, so uncalendar may not be a word, but you know what I mean! If you want to recharge and create new energy in your life, you must change your pace and your plans. Take a few things off your calendar, or simply schedule more time for yourself rather than everyone and everything else. This isn’t a selfish act. In fact, as you recharge and create more energy, you are better able to help and serve others. Uncalendar!
Unleash your imagination, hopes and dreams. Think more expansively; think more positively. This is one of the best things you can do with the time you just gave yourself by uncalendaring. Spend time in goal setting, goal planning and creative thinking. Open your mind up to new ideas, approaches and more. When you do you will find energy streaming into your life in amazing quantities. The energy is already there; it’s ready for you when you unleash your mind.
Unplug yourself. In most cases, energy requires plugging something in – it’s hard to power the toaster without electricity! In our lives today we are plugged in in so many wonderful ways – to phones for instant communication, to the internet for connection and information and productivity and much more. I’m guessing you have multiple technological tools you use every day. And at least one (or more) that you use multiple times each hour. As valuable as these devices and appliances are, they can become energy drains too. Choose to turn off your phone, shut down your laptop, and not worry about the news for a day or two. You can do this by going away to a more secluded place, or you can do it by hitting the off button. Create more energy in your life, by tapping into different energy when you unplug from some others. Choose to unplug.
An important note: This has been written from a personal perspective. As a leader it is important to recharge for yourself, so you’ll be a better and leader . . . and because it’s an important to encourage your team members to reduce stress and recharge themselves too. If you believe the actions you just read will increase your energy, teaching and modeling these ideas to others is a great way to lead and make a difference for others – increasing productivity in the process.
Potential Pointer: To maximize your results, productivity and life satisfaction, you must become an energy manager. When you focus on recharging your mental and emotional batteries, you’ll have greater energy in every area of your life.

Saturday, March 30, 2013

'अपने इस मानव जीवन को परोपकार में लगाओ'

नई दिल्ली।। दिव्य ज्योति जागृति संस्थान द्वारा पीतमपुरा आश्रम में सत्संग के अवसर पर स्वामी नरेन्द्रानन्द ने कहा कि शिव सदा और सर्वत्र कल्याणकारी हैं। उनका प्रत्येक स्वरूप और श्रृंगार हमें एक महान संदेश देता है। उन्हें त्रिनेत्र धारी कहा गया। उसी प्रकार हम सबके मस्तक पर भी एक तीसरा नेत्र है जो जीवन पर्यंत बंद रहता है। भगवान शंकर का जागृत तीसरा नेत्र मानव को प्रेरित करता है कि हम भी एक पूर्ण गुरु की शरण में जाकर अपना शिव नेत्र जागृत करें। जब हमारा यह नेत्र खुलेगा तभी हम ब्रह्मा सत्य का साक्षात्कार कर पाएंगे। ईश्वर के दर्शन कर पाएंगे।

श्री सनातन धर्म सभा लाल मंदिर, ईस्ट पटेल नगर में भागवत गीता पर प्रवचन करते हुए स्वामी मुकुन्दानन्द ने कहा कि संतों के मुख से भगवान के नाम गुणादि की चर्चा सुनने से हृदय की गंदगी धुलती है और हृदय स्वच्छ होने लगता है। किंतु सुनने मात्र से काम नहीं चलेगा। उस ज्ञान को आचरण में लाना है। ज्ञान का सोपान मनन है, यह भी जरूरी है और फिर अंत में तीसरे सोपान में उस ज्ञान पर विश्वास करना भी आवश्यक है।

महागौरी मंदिर, डी ब्लॉक खजूरी खास में सत्संग के अवसर पर पंडित भोलादत्त पांडे ने कहा कि यह मानव चोला हमें बड़े सौभाग्य से मिला है। हमें इस मानव जीवन को व्यर्थ ही नहीं खोना है। इसे परोपकार में लगाकर ही आत्म कल्याण किया जा सकता है। ऐसा अवसर दुबारा मिलने वाला नहीं है।
http://navbharattimes.indiatimes.com/-/holy-discourse/-/invest-your-life-in-charity/articleshow/18984527.cms

अपनी सेवा भी करना सीखें

एक बहुत रोचक कथा है। एक बार आचार्य महीधर अस्वस्थ हो गए। उनके आश्रम के शिष्य अनुष्ठान करने प्रयाग गए थे। कोई औषधि लाने वाला नहीं था। आचार्य रोग की निर्बलता और आलस्य के कारण आश्रम से बाहर जाना नहीं चाहते थे। उन्होंने सोचा कि भगवान कृष्ण से प्रार्थना की जाए, वे अवश्य ही ठीक कर देंगे।

आचार्य ने काठ की एक मूर्ति का मनोहारी श्रृंगार किया और विधिवत उपासना करने के बाद प्रार्थना की कि हे कृष्ण, आप मुझे स्वस्थ कर दें। भगवान ने तथास्तु कहा और आचार्य ठीक हो गए।

कुछ समय बीता। आचार्य फिर से बीमार पड़ गए। इस बार भी उन्होंने पहले की ही तरह काठ की मूर्ति का श्रृंगार किया और पूजा करने के बाद प्रार्थना की कि हे कृष्ण! आप मुझे स्वस्थ कर दें। इस बार प्रार्थना सुन कर श्रीकृष्ण स्वयं ही प्रकट हो गए। और नाराज हो कर कहा कि जितना समय और श्रम मूर्ति को सजाने और पूजा- अर्चना करने में लगाया, उससे कम परिश्रम में वैद्य के पास जाया जा सकता था।
कृष्ण ने कहा, जो काम तुमको स्वयं करना है, उसके लिए मुझे याद करने की आवश्यकता क्या है? पहले स्वयं कर्मशील बनो। अपने कर्त्तव्य को त्यागने वाला मुझे कभी प्रिय नहीं होता। चिकित्सक के पास जाना तुम्हारा कर्त्तव्य था। उसके लिए प्रार्थना करने की आवश्यकता नहीं है। गीता में भी यही कहा गया है।

ईश्वर की कृपा तभी मिलती है, जब हम यथाशक्ति अपने निर्धारित कर्त्तव्य का पालन करते हैं। अभाव, असहाय स्थिति या घोर संकट के समय जहां कर्त्तव्य का पालन भी कठिन हो, वहीं ईश्वर की सहायता मांगनी चाहिए। लोक सेवा के साथ-साथ 'स्व सेवा' की भी आवश्यक होती है। आचार्य महीधर की आंखें खुल गईं और वे तुरंत वैद्य के पास पहुंचे। कुछ दिनों के बाद स्वस्थ भी हो गए। लेकिन स्वस्थ होने के बाद उन्होंने उन कारणों को खोजना आरंभ किया, जिस कारण वे बार-बार बीमार पड़ते थे। उन्हें लगा कि उनका आलस्य और काम न करने की प्रवृत्ति ही उनके रोग का कारण है।

इसके बाद उन्होंने एक पुस्तक लिखी स्वसेवा चिंतन। इस पुस्तक में उन्होंने बताया कि मानव को स्वयं को बेहतर बनाने के लिए निरंतर प्रयास करते रहना चाहिए। आत्म विकास व्यक्ति को समाज के अनुकूल बनाता है। और उसमें सात्विक प्रवृत्तियां विकसित करता है। हमारे शास्त्रों में आत्म अनुशीलन पर बल दिया गया है। कोई भी व्यक्ति अपनी सेवा तभी कर सकता है, जब उसे अपने दोषों का ज्ञान हो। यहां सेवा का अर्थ विचार और आचरण की शुद्धि है। स्वयं को स्वच्छ करे मन और तन से स्वस्थ रहने का उपाय करें।

आचार्य महीधर का यह सिद्धांत है कि आत्म विकास ईश्वर के निकट पहुंचने की पहली सीढ़ी है। इस सेवा भाव का एक और पक्ष है। किसी मुनि ने अध्यात्म का गहरा अध्ययन किया। विद्या का कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं रहा, जिसका अनुशीलन न किया हो। लेकिन यह भूल गए कि जो ज्ञान प्राप्त किया उसका अर्थ क्या है? तपस्वी होने का प्रयोजन क्या है?

धर्म का मूल सेवा है। ज्ञान का आधार सेवा है। ईश्वर को सेवा ही प्रिय है, पर अपनी नहीं। यह सृष्टि ईश्वर की है। उसकी किसी भी रचना की सेवा करना, ईश्वर की सेवा है। सिर्फ धार्मिक और आध्यात्मिक ही नहीं, किसी भी ज्ञान का वास्तविक लक्ष्य यही है। इसलिए अपने भीतर ज्ञान के साथ-साथ सेवा भाव भी विकसित करें।
आचार्य महीधर का यह सिद्धांत है कि आत्म विकास ईश्वर के निकट पहुंचने की पहली सीढ़ी है। इस सेवा भाव का एक और पक्ष है। किसी मुनि ने अध्यात्म का गहरा अध्ययन किया। विद्या का कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं रहा, जिसका अनुशीलन न किया हो। लेकिन यह भूल गए कि जो ज्ञान प्राप्त किया उसका अर्थ क्या है? तपस्वी होने का प्रयोजन क्या है?

धर्म का मूल सेवा है। ज्ञान का आधार सेवा है। ईश्वर को सेवा ही प्रिय है, पर अपनी नहीं। यह सृष्टि ईश्वर की है। उसकी किसी भी रचना की सेवा करना, ईश्वर की सेवा है। सिर्फ धार्मिक और आध्यात्मिक ही नहीं, किसी भी ज्ञान का वास्तविक लक्ष्य यही है। इसलिए अपने भीतर ज्ञान के साथ-साथ सेवा भाव भी विकसित करें।

ईश्वर आपकी सेवा-सामर्थ्य और धैर्य को देखना चाहता है। यदि आप सेवा पथ पर चलोगे, तो अनंत आकाश से कृपा की अनंत वर्षा होगी। रोज किसी न किसी असहाय की सेवा करो। आपको अपने अंत:करण में शांति की प्राप्ति होगी। यही ईश्वर की प्राप्ति है। यदि किसी संत या मुनि का आश्रम शिक्षा का केंद्र होने के साथ-साथ अपने पावन उद्देश्यों को व्यावहारिक जीवन में उतारने का केंद्र भी नहीं बना तो उसका आश्रम होना व्यर्थ है
http://navbharattimes.indiatimes.com/-/holy-discourse/religious-discourse/learn-how-to-make-your-service/articleshow/19022295.cms

Saturday, March 16, 2013

Sixteen versus Eighteen/ सोलह बनाम अट्ठारह

हमारा मत: सिर्फ मणिपुर को छोड़कर, जहां सहमति से यौन संबंध बनाने की उम्र 14 साल है, शेष भारत में यह 16 साल ही रही है। 2004 में केरल हाई कोर्ट ने वहां की राज्य सरकार को इसे 18 साल करने को कहा था और पिछले साल यही गुजारिश महिला व बाल कल्याण मंत्रालय ने की थी, ताकि नाबालिग लड़कियों को वेश्यावृत्ति की ओर धकेलने वालों को पकड़ना आसान हो।

दिल्ली सामूहिक रेप कांड के बाद जब अध्यादेश लाने की हड़बड़ी मची तो केंद सरकार ने बिना किसी अनुशंसा के ही सहमति की उम्र बढ़ाकर 18 साल कर दी। यह खुद में सरकारी अविवेक का नमूना है, क्योंकि एंटी रेप कानून का ढांचा बनाने में एज ऑफ कंसेंट पर पुनर्विचार का कोई मतलब नहीं है। किसी भी महिला से- फिर उसकी उम्र चाहे कुछ भी क्यों न हो- उसकी मर्जी के खिलाफ यौन संबंध बनाना बलात्कार है। इसका बहुत छोटा हिस्सा ऐसे मामलों का होता है, जिसमें मर्जी से बनाए गए यौन संबंध भी बलात्कार माने जाते हैं, क्योंकि उम्र कम होने से लड़की की मर्जी बेमतलब हो जाती है। मॉरीशस में यह आयु सीमा 12 वर्ष और कैमरून में 21 वर्ष है, जबकि भारत में बहुत पहले से 16 वर्ष ही चली आ रही है। आने वाले दिनों में नई पीढ़ी इसे और घटाने की मांग करेगी और इसे बढ़ाने पर अड़े लोगों पर लानत भेजेगी। बात जब एंटी रेप कानून की चल रही हो तो बहस उन चीजों पर होनी चाहिए, जो बदल रही हैं। 'कौआ कान ले गया' की तर्ज पर ऐसी चीजों पर बहस का क्या फायदा, जिनमें कोई बदलाव नहीं हो रहा, सिर्फ एक सरकारी गलती दुरुस्त की जा रही है।

दूसरा मत: सावधान समितियां बनाई जाएं
(मृदुला सिन्हा, पूर्व अध्यक्ष, समाज कल्याण बोर्ड)वर्मा कमेटी की रिपोर्ट के बाद काफी समय सरकार को मिला था। लेकिन मुझे लगता है कि ये जो एक्सरसाइज हो रही है, इसके पीछे कोई गंभीरता और दूरदृष्टि नहीं है। उम्र कम कर देने भर से कुछ नहीं होने वाला। सरकार को कुछ करना है, इसलिए कर दो, ये क्या बात हुई। कानून बनाने के पीछे सुरक्षा की भावना है, तो पहले आप सुरक्षा की परिभाषा तय कीजिए। कानून तो चाहिए और स्ट्रांग कानून चाहिए। लेकिन जब हमारे यहां साठ बरस की महिला और पांच साल की बच्ची तक से बलात्कार हो जाता है तो सोलह साल को सहमति की उम्र बना देने से क्या हो जाएगा? और मैं पूछती हूं कि सिर्फ उम्र के बारे में ही इतनी चर्चा क्यों की जा रही है? महत्वपूर्ण यह है कि हम संस्कार देने के बारे में सोचें। लड़कों को भी और लड़कियों को भी। यह काम परिवार से शुरू होता है। घर से निकलते समय हमारे वक्त में कितनी हिदायतें मिला करती थीं। हम जो करने जा रहे हैं, उसके बारे में हमारी मंशा ठीक होनी चाहिए। यह भी नहीं कह सकती कि लड़कियां जहां मर्जी जाएं। थोड़ी-बहुत सीख उन्हें देनी जरूरी है। साथ ही लोगों में यह हिम्मत पैदा करनी होगी कि जब गंदी हरकतें देखें तो विरोध जरूर करें। कोई कुछ बोलता ही नहीं। सोचना यह है कि समाज के कंकड़ कैसे बीने जाएं? बहरहाल अब सरकार को चाहिए कि वह सामाजिक संस्थाओं और पंचायतों को इसमें इन्वाल्व करे। उन्हें विचार विमर्श के लिए आमंत्रित करें। सावधान समितियां भी बनाई जानी चाहिए।

होली का इतिहास


होली वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण भारतीय त्योहार है। यह पर्व हिंदू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है।
होली भारत का अत्यंत प्राचीन पर्व है जो होली, होलिका या होलाका नाम से मनाया जाता था। वसंत की ऋतु में हर्षोल्लास के साथ मनाए जाने के कारण इसे वसंतोत्सव और काम-महोत्सव भी कहा गया है।
इतिहासकारों का मानना है कि आयरें में भी इस पर्व का प्रचलन था लेकिन अधिकतर यह पूर्वी भारत में ही मनाया जाता था। इस पर्व का वर्णन अनेक पुरातन धार्मिक पुस्तकों में मिलता है। इनमें प्रमुख हैं, जैमिनी के पूर्व मीमांसा-सूत्र और कथा गार्ह्य-सूत्र। नारद पुराण औऱ भविष्य पुराण जैसे पुराणों की प्राचीन हस्तलिपियों और ग्रंथों में भी इस पर्व का उल्लेख मिलता है। विंध्य क्षेत्र के रामगढ़ स्थान पर स्थित ईसा से 300 वर्ष पुराने एक अभिलेख में भी इसका उल्लेख किया गया है। संस्कृत साहित्य में वसंत ऋतु और वसन्तोत्सव अनेक कवियों के प्रिय विषय रहे हैं।
सुप्रसिद्ध मुस्लिम पर्यटक अलबरूनी ने भी अपने ऐतिहासिक यात्रा संस्मरण में होलिकोत्सव का वर्णन किया है। भारत के अनेक मुस्लिम कवियों ने अपनी रचनाओं में इस बात का उल्लेख किया है कि होलिकोत्सव केवल हिंदू ही नहीं कई मुसलमान भी मनाते हैं। सबसे प्रामाणिक इतिहास की तस्वीरें हैं।
मुगलकालीन होली-
शायस्ता खँ के दरबार में होली
प्राचीन काल से अविरल होली मनाने की परंपरा को मुगलों के शासन में भी अवरुद्ध नहीं किया गया बल्कि कुछ मुगल बादशाहों ने तो धूमधाम से होली मनाने में अग्रणी भूमिका का निर्वाह किया। अकबर, हुमायूँ, जहाँगीर, शाहजहाँ और बहादुरशाह ज़फर होली के आगमन से बहुत पहले ही रंगोत्सव की तैयारियाँ प्रारंभ करवा देते थे। अकबर के महल में सोने चाँदी के बड़े-बड़े बर्तनों में केवड़े और केसर से युक्त टेसू का रंग घोला जाता था और राजा अपनी बेगम और हरम की सुंदरियों के साथ होली खेलते थे। शाम को महल में उम्दा ठंडाई, मिठाई और पान इलायची से मेहमानों का स्वागत किया जाता था और मुशायरे, कव्वालियों और नृत्य-गानों की महफि़लें जमती थीं।
जहाँगीर के समय में महफि़ल-ए-होली का भव्य कार्यक्रम आयोजित होता था। इस अवसर पर राज्य के साधारण नागरिक बादशाह पर रंग डालने के अधिकारी होते थे। शाहजहाँ होली को ईद गुलाबी के रूप में धूमधाम से मनाता था। बहादुरशाह जफर होली खेलने के बहुत शौकीन थे और होली को लेकर उनकी सरस काव्य रचनाएं आज तक सराही जाती हैं। मुगल काल में होली के अवसर पर लाल किले के पिछवाड़े यमुना नदी के किनारे आम के बाग में होली के मेले लगते थे। मुगल शैली के एक चित्र में औरंगजेब के सेनापति शायस्ता खाँ को होली खेलते हुए दिखाया गया है। दाहिनी ओर दिए गए इस चित्र की पृष्ठभूमि में आम के पेड़ हैं महिलाओं के हाथ में पिचकारियाँ हैं और रंग के घड़े हैं।
मुगल काल की और इस काल में होली के किस्से उत्सुकता जगाने वाले हैं। अकबर का जोधाबाई के साथ तथा जहांगीर का नूरजहाँ के साथ होली खेलने का वर्णन मिलता है। अलवर संग्रहालय के एक चित्र में जहाँगीर को होली खेलते हुए दिखाया गया है। शाहजहाँ के समय तक होली खेलने का मुगलिया अंदाज ही बदल गया था। इतिहास में वर्णन है कि शाहजहाँ के जमाने में होली को ईद-ए-गुलाबी या आब-ए-पाशी (रंगों की बौछार) कहा जाता था। अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के बारे में प्रसिद्ध है कि होली पर उनके मंत्री उन्हें रंग लगाने जाया करते थे। मध्ययुगीन हिन्दी साहित्य में दर्शित कृष्ण की लीलाओं में भी होली का विस्तृत वर्णन मिलता है।
इसके अतिरिक्त प्राचीन चित्रों, भित्तिचित्रों और मंदिरों की दीवारों पर इस उत्सव के चित्र मिलते हैं। विजयनगर की राजधानी हंपी के 16वी शताब्दी के एक चित्रफलक पर होली का आनंददायक चित्र उकेरा गया है। इस चित्र में राजकुमारों और राजकुमारियों को दासियों सहित रंग और पिचकारी के साथ राज दम्पत्ति को होली के रंग में रंगते हुए दिखाया गया है। 16वी शताब्दी की अहमदनगर की एक चित्र आकृति का विषय वसंत रागिनी ही है। इस चित्र में राजपरिवार के एक दंपत्ति को बगीचे में झूला झूलते हुए दिखाया गया है। साथ में अनेक सेविकाएँ नृत्य-गीत व रंग खेलने में व्यस्त हैं। वे एक दूसरे पर पिचकारियों से रंग डाल रहे हैं। मध्यकालीन भारतीय मंदिरों के भित्तिचित्रों और आकृतियों में होली के सजीव चित्र देखे जा सकते हैं। उदाहरण के लिए इसमें 17वी शताब्दी की मेवाड़ की एक कलाकृति में महाराणा को अपने दरबारियों के साथ चित्रित किया गया है। शासक कुछ लोगों को उपहार दे रहे हैं, नृत्यांगना नृत्य कर रही हैं और इस सबके मध्य रंग का एक कुंड रखा हुआ है। बूंदी से प्राप्त एक लघुचित्र में राजा को हाथीदाँत के सिंहासन पर बैठा दिखाया गया है जिसके गालों पर महिलाएँ गुलाल मल रही हैं।
फाल्गुन माह में मनाए जाने के कारण इसे फाल्गुनी भी कहते हैं। होली का त्योहार वसंत पंचमी से ही आरंभ हो जाता है। उसी दिन पहली बार गुलाल उड़ाया जाता है। चारों तरफ़ रंगों की फुहार फूट पड़ती है। होली के दिन आम्र मंजरी तथा चंदन को मिलाकर खाने का बड़ा माहात्म्य है।
भगवान नृसिंह द्वारा हिरण्यकशिपु का वध-
होली के पर्व से अनेक कहानियाँ जुड़ी हुई हैं। इनमें से सबसे प्रसिद्ध कहानी है प्रह्ललाद की। माना जाता है कि प्राचीन काल में हिरण्यकशिपु नाम का एक अत्यंत बलशाली असुर था। अपने बल के दर्प में वह स्वयं को ही ईश्वर मानने लगा था। उसने अपने राच्य में ईश्वर का नाम लेने पर ही पाबंदी लगा दी थी। हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्ललाद ईश्वर भक्त था। प्रह्ललाद की ईश्वर भक्ति से क्रुद्व होकर हिरण्यकशिपु ने उसे अनेक कठोर दंड दिए, परंतु उसने ईश्वर की भक्ति का मार्ग न छोड़ा। हिरण्यकशिपु की बहन होलिका को वरदान प्राप्त था कि वह आग में भस्म नहीं हो सकती। हिरण्यकशिपु ने आदेश दिया कि होलिका प्रह्ललाद को गोद में लेकर आग में बैठे। आग में बैठने पर होलिका तो जल गई, पर प्रह्ललाद बच गया। ईश्वर भक्त प्रह्ललाद की याद में इस दिन होली जलाई जाती है। प्रतीक रूप से यह भी माना जता है कि प्रह्ललाद का अर्थ आनन्द होता है। वैर और उत्पीड़न की प्रतीक होलिका (जलाने की लकड़ी) जलती है और प्रेम तथा उल्लास का प्रतीक प्रह्ललाद अक्षुण्ण रहता है। प्रह्ललाद की कथा के अतिरिक्त यह पर्व राक्षसी ढुंढी, राधा कृष्ण के रास और कामदेव के पुनर्जन्म से भी जुड़ा हुआ है। कुछ लोगों का मानना है कि होली में रंग लगाकर, नाच-गाकर लोग शिव के गणों का वेश धारण करते हैं तथा शिव की बारात का दृश्य बनाते हैं। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि भगवान श्रीकृष्ण ने इस दिन पूतना नामक राक्षसी का वध किया था। इसी खु़शी में गोपियों और ग्वालों ने रासलीला की और रंग खेला था।
होली के पर्व की तरह इसकी परंपराएँ भी अत्यंत प्राचीन हैं, और इसका स्वरूप और उद्देश्य समय के साथ बदलता रहा है। प्राचीन काल में यह विवाहित महिलाओं द्वारा परिवार की सुख समृद्धि के लिए मनाया जाता था और पूर्ण चंद्र की पूजा करने की परंपरा थी। । वैदिक काल में इस पर्व को नवात्रैष्टि यज्ञ कहा जाता था। उस समय खेत के अधपके अन्न को यज्ञ में दान करके प्रसाद लेने का विधान समाज में व्याप्त था। अन्न को होला कहते हैं, इसी से इसका नाम होलिकोत्सव पड़ा। भारतीय च्योतिष के अनुसार चैत्र शुदी प्रतिपदा के दिन से नववर्ष का भी आरंभ माना जाता है। इस उत्सव के बाद ही चैत्र महीने का आरंभ होता है। अत: यह पर्व नवसंवत का आरंभ तथा वसंतागमन का प्रतीक भी है। इसी दिन प्रथम पुरुष मनु का जन्म हुआ था, इस कारण इसे मन्वादितिथि कहते हैं।
सार्वजनिक होली मिलन
भारत में मनाए जाने वाले होली में होली से अगला दिन धूलिवंदन कहलाता है। इस दिन लोग रंगों से खेलते हैं। सुबह होते ही सब अपने मित्रों और रिश्तेदारों से मिलने निकल पड़ते हैं। गुलाल और रंगों से सबका स्वागत किया जाता है। लोग अपनी ईष्या-द्वेष की भावना भुलाकर प्रेमपूर्वक गले मिलते हैं तथा एक-दूसरे को रंग लगाते हैं। इस दिन जगह-जगह टोलियाँ रंग-बिरंगे कपड़े पहने नाचती-गाती दिखाई पड़ती हैं। बच्चे पिचकारियों से रंग छोड़कर अपना मनोरंजन करते हैं। सारा समाज होली के रंग में रंगकर एक-सा बन जाता है। रंग खेलने के बाद देर दोपहर तक लोग नहाते हैं और शाम को नए वस्त्र पहनकर सबसे मिलने जाते हैं। प्रीति भोज तथा गाने-बजाने के कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं।
होली के दिन घरों में विभिन्न व्यंजन पकाए जाते हैं। इस अवसर पर अनेक मिठाइयाँ बनाई जाती हैं जिनमें गुझियों का स्थान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। बेसन के सेव और दहीबड़े भी सामान्य रूप से उत्तर प्रदेश में रहने वाले हर परिवार में बनाए व खिलाए जाते हैं। कांजी, भांग और ठंडाई इस पर्व के विशेष पेय होते हैं। पर ये कुछ ही लोगों को भाते हैं। इस अवसर पर उत्तरी भारत के प्राय: सभी राज्यों के सरकारी कार्यालयों में अवकाश रहता है, पर दक्षिण भारत में उतना लोकप्रिय न होने की वज़ह से इस दिन सरकारी संस्थानों में अवकाश नहीं रहता ।
भारत में होली का उत्सव अलग-अलग प्रदेशों में भिन्नता के साथ मनाया जाता है। ब्रज की होली आज भी सारे देश के आकर्षण का बिंदु होती है। बरसाने की लठमार होली काफ़ी प्रसिद्ध है। इसमें पुरुष महिलाओं पर रंग डालते हैं और महिलाएँ उन्हें लाठियों तथा कपड़े के बनाए गए कोड़ों से मारती हैं। इसी प्रकार मथुरा और वृंदावन में भी 15 दिनों तक होली का पर्व मनाया जाता है। कुमाऊँ की गीत बैठकी में शास्त्रीय संगीत की गोष्ठियाँ होती हैं। यह सब होली के कई दिनों पहले शुरू हो जाता है। हरियाणा की धुलंडी में भाभी द्वारा देवर को सताए जाने की प्रथा है। बंगाल की दोल जात्रा चैतन्य महाप्रभु के जन्मदिन के रूप में मनाई जाती है। जलूस निकलते हैं और गाना बजाना भी साथ रहता है। इसके अतिरिक्त महाराष्ट्र की रंग पंचमी में सूखा गुलाल खेलने, गोवा के शिमगो में जलूस निकालने के बाद सांस्कृतिक कार्यक्त्रमों का आयोजन तथा पंजाब के होला मोहल्ला में सिक्खों द्वारा शक्ति प्रदर्शन की परंपरा है। दक्षिण गुजरात के आदिवासियों के लिए होली सबसे बड़ा पर्व है, छत्तीसगढ़ की होरी में लोक गीतों की अद्भूत परंपरा है और मध्यप्रदेश के मालवा अंचल के आदिवासी इलाकों में बेहद धूमधाम से मनाया जाता है भगोरिया, जो होली का ही एक रूप है। बिहार का फगुआ जम कर मौज मस्ती करने का पर्व है और नेपाल की होली में धार्मिक व सांस्कृतिक रंग दिखाई देता है। इसी प्रकार विभिन्न देशों में बसे प्रवासियों तथा धार्मिक संस्थाओं जैसे इस्कॉन या वृंदावन के बांके बिहारी मंदिर में अलग अलग प्रकार से होली के श्रृंगार व उत्सव मनाने की परंपरा है जिसमें अनेक समानताएं और भिन्नताएँ हैं।
साहित्य में होली का इतिहास-
प्राचीन काल के संस्कृत साहित्य में होली के अनेक रूपों का विस्तृत वर्णन है। श्रीमद्भागवत महापुराण में रसों के समूह रास का वर्णन है। अन्य रचनाओं में रंग नामक उत्सव का वर्णन है। भक्तिकाल और रीतिकाल के हिन्दी साहित्य में होली और फाल्गुन माह का विशिष्ट महत्व रहा है। आदिकालीन कवि विद्यापति से लेकर भक्तिकालीन सूरदास, रहीम, रसखान, पद्माकर, जायसी, मीराबाई, कबीर और रीतिकालीन बिहारी, केशव, घनानंद आदि अनेक कवियों को यह विषय प्रिय रहा है। महाकवि सूरदास ने वसन्त एवं होली पर 78 पद लिखे हैं। पद्माकर ने भी होली विषयक प्रचुर रचनाएँ की हैं। इस विषय के माध्यम से कवियों ने जहाँ एक ओर नितान्त लौकिक नायक नायिका के बीच खेली गई अनुराग और प्रीति की होली का वर्णन किया है, वहीं राधा कृष्ण के बीच खेली गई प्रेम और छेड़छाड़ से भरी होली के माध्यम से सगुण साकार भक्तिमय प्रेम और निर्गुण निराकार भक्तिमय प्रेम का निष्पादन कर डाला है। सूफ़ी संत हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया, अमीर खुसरो और बहादुर शाह ज़फ़र जैसे मुस्लिम संप्रदाय का पालन करने वाले कवियों ने भी होली पर सुंदर रचनाएं लिखी हैं जो आज भी जन सामान्य में लोकप्रिय हैं। आधुनिक हिंदी कहानियों प्रेमचंद की राजा हरदोल, प्रभु जोशी की अलग अलग तीलियाँ, तेजेंद्र शर्मा की एक बार फिर होली, ओम प्रकाश अवस्थी की होली मंगलमय हो तथा स्वदेश राणा की हो ली में होली के अलग अलग रूप देखने को मिलते हैं। भारतीय फि़ल्मों में भी होली के दृश्यों और गीतों को सुंदरता के साथ चित्रित किया गया है। इस दृष्टि से शशि कपूर की उत्सव, यश चोपड़ा की सिलसिला, वी शांताराम की झनक झनक पायल बाजे और नवरंग इत्यादि उल्लेखनीय हैं।
संगीत में होली का इतिहास-
वसंत रागिनी- कोटा शैली में रागमाला श्रृंखला का एक लघुचित्र
भारतीय शास्त्रीय, उपशास्त्रीय, लोक तथा फि़ल्मी संगीत की परम्पराओं में होली का विशेष महत्व है। शास्त्रीय संगीत में धमार का होली से गहरा संबंध है, हाँलाँकि ध्रुपद, धमार, छोटे व बड़े ख्याल और ठुमरी में भी होली के गीतों का सौंदर्य देखते ही बनता है। कथक नृत्य के साथ होली, धमार और ठुमरी पर प्रस्तुत की जाने वाली अनेक सुंदर बंदिशें जैसे चलो गुंइयां आज खेलें होरी कन्हैया घर आज भी अत्यंत लोकप्रिय हैं। ध्रुपद में गाये जाने वाली एक लोकप्रिय बंदिश है खेलत हरी संग सकल, रंग भरी होरी सखी। भारतीय शास्त्रीय संगीत में कुछ राग ऐसे हैं जिनमें होली के गीत विशेष रूप से गाए जाते हैं। बसंत, बहार, हिंडोल और काफ़ी ऐसे ही राग हैं। होली पर गाने बजाने का अपने आप वातावरण बन जाता है और जन जन पर इसका रंग छाने लगता है। उपशास्त्रीय संगीत में चैती, दादरा और ठुमरी में अनेक प्रसिद्ध होलियां हैं। होली के अवसर पर संगीत की लोकप्रियता का अंदाज़ इसी बात से लगाया जा सकता है कि संगीत की एक विशेष शैली का नाम ही होली हैं, जिसमें अलग अलग प्रांतों में होली के विभिन्न वर्णन सुनने को मिलते है जिसमें उस स्थान का इतिहास और धार्मिक महत्व छुपा होता है। जहां ब्रजधाम में राधा और कृष्ण के होली खेलने के वर्णन मिलते हैं वहीं अवध में राम और सीता के जैसे होली खेलें रघुवीरा अवध में। राजस्थान के अजमेर शहर में ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर गाई जाने वाली होली का विशेष रंग है। उनकी एक प्रसिद्ध होली है आज रंग है री मन रंग है,अपने महबूब के घर रंग है री। इसी प्रकार शंकर जी से संबंधित एक होली में दिगंबर खेले मसाने में होली कह कर शिव द्वारा श्मशान में होली खेलने का वर्णन मिलता हैं। भारतीय फिल्मों में भी अलग अलग रागों पर आधारित होली के गीत प्रस्तुत किये गए हैं जो काफी लोकप्रिय हुए हैं। सिलसिला के गीत रंग बरसे भीगे चुनर वाली, रंग बरसे और नवरंग के आया होली का त्योहार, उड़े रंगों की बौछार, को आज भी लोग भूल नहीं पाए हैं

बुजुर्ग हमारी संपत्ति हैं, बोझ नहीं


कहानी 1 : इलाहाबाद विश्वविद्यालय में उर्दू की सेवानिवृत्त रिसर्च स्कॉलर लक्ष्मी गुप्ता अपनी सहेली (रूममेट) से शिकायत कर रही थीं, देखो बच्चे कितने गैरजिम्मेदार तरीके से व्यवहार करते हैं। मैंने उससे कहा था कि घर पहुंचते ही मुझे फोन कर बता दे, लेकिन उसे यहां से निकले तीन घंटा हो चुका है और यहां से घर का रास्ता मुश्किल से 45 मिनट का है। वह अपने 52 वर्षीय बेटे के बारे में बात कर रही थीं, जो एक बड़ी म्यूजिक कंपनी में वाइस प्रेसीडेंट है और कुछ घंटे पहले उससे मिलने आया था। काफी देर बाद जब फोन आया तो वह एक 9 साल की बच्ची की तरह दौड़ पड़ीं। वहीं दूसरी ओर से उनका बेटा बार-बार माफी मांग रहा था, मैं संगीत के क्षेत्र में शोध से संबंधित एक बहस में उलझ गया था और सुरक्षित घर पहुंच गया हूं। हालांकि, हो सकता है मैं अगले महीने आपसे मिलने नहीं आ पाऊं, लेकिन अगले दो महीनों में आपका हाल-चाल लेने जरूर आउंगा। इतना कहकर उसने फोन रख दिया। लक्ष्मी ने मुस्कराते हुए राहत की सांस ली और फिर से वृद्धाश्रम की प्रार्थना सभा की तैयारियों में जुट गई। वे इसी वृद्धाश्रम में रहती हैं और प्रार्थना सभा में उनके उर्दू के शेरों को सभी बड़े चाव से सुनते हैं। उनकी गजल और शेर सैकड़ों वृद्धजनों के दिलों को सुकून पहुंचाते हैं, जिनके बच्चे आसपास ही रहते हैं। लेकिन उनके घरों में इतनी जगह नहीं है कि वे उन्हें अपने साथ रख सकें। 
 
'क्या कहें कुछ कहा नहीं जाता...' 
 
कहानी 2 : यह कई गजलों में से एक है... 
 
आप शाम को किसी पार्टी में जा रहे हैं और पार्टी में मौजूद लोगों को प्रभावित करने के लिए कोई गजल या शेर अथवा किसी कवि की आत्मकथा की कुछ पंक्तियां गाकर सुनाना चाहते हैं। आपने घर में इसे याद करने की भरपूर कोशिश की, लेकिन पार्टी में पहुंचते ही गजल का आधा हिस्सा आप भूल गए। चिंता की कोई बात नहीं। स्मार्टफोन का उपयोग करने वाले लोग भूली हुई गजल के कुछ शब्दों को सर्च ऑप्शन में डालकर पूरी गजल ढूंढ़ सकते हैं। ये उर्दू, देवनागरी और रोमन लिपियों में उपलब्ध हैं और इन्हें ईमेल और प्रिंट करने के अलावा रिफरेंस के लिए भी रखा जा सकता है ताकि पार्टी में इसकी मदद से आप पूरी गजल गा सकें। आप इसके लिए ह्म्द्गद्मद्धह्लड्ड.शह्म्द्द पर लॉग इन कर सकते हैं, जहां मिर्जा गालिब और फिराक गोरखपुरी से लेकर लखनऊ, कानपुर, लाहौर और कराची जैसे शहरों के आधुनिक गजल गायकों की रचनाएं भी उपलब्ध हैं। इस वेबसाइट पर 2500 से ज्यादा गजल, 200 से ज्यादा कवियों की कविताएं, 3000 से ज्यादा चौपाइयां, हाइपर लिंक के साथ 11 ई-बुक्स तथा ऑनलाइन डिक्शनरी भी उपलब्ध है, जिसमें 40000 से ज्यादा शब्द हैं। आप बेगम अख्तर और फरीदा खानम की रचनाएं सुन नहीं पा रहे तो इस वेबसाइट की मदद लीजिए। हर गजल की रिकॉर्डिंग उन पेशेवर लोगों द्वारा की जाती है, जो रेडियो स्टेशन के लिए रेडियो जॉकी को उर्दू शब्दों के उच्चारण का प्रशिक्षण देते हैं। वे रिकॉर्डिंग से पहले गजल के तलफ्फुज और लहजे की जांच करते हैं। वेबसाइट के प्रमोटर संजीव सराफ ने रिफरेंस के लिए पुरानी दिल्ली के उर्दू बाजार तथा दरियागंज में रविवार को लगने वाले बुक मार्केट से किताबें खरीदीं। विद्वानों के साथ प्रोफेसरों और शायरों के एक दस सदस्यीय पैनल ने साइट पर प्रकाशित हर जानकारी की सत्यता को परखा। सप्ताह के सातों दिन एक रिसर्च टीम 800 साल पुरानी गजलों की परंपरा की हर रचना को खंगालने के काम में लगी है और इसके अधिकांश सदस्य बूढ़े हैं। 
 
फंडा यह है कि... 
 
बुजुर्ग हमारी संपत्ति हैं या जिम्मेदारी, इसका फैसला खुद हमें ही लेना होगा। यदि नई पीढ़ी इन अनुभवी लोगों को अकेले में जीने-मरने के लिए छोड़ती है तो यह उसकी निरी मूर्खता है। जब हम छोटे थे तो ये हमारी संपत्ति थे, फिर बड़े होने पर वे हमारे लिए भार कैसे बन सकते हैं? 
http://www.bhaskar.com/article/MAG-article-of-career-mantra-4186046-NOR.html

Thursday, March 14, 2013

जानिए क्या फर्क होता है धन और लक्ष्मी में...



जानिए क्या फर्क होता है धन और लक्ष्मी में...
धन और लक्ष्मी में बहुत अंतर होता है। इन दोनों में बहुत अंतर है। आपके पास पैसा भले ही बहुत हो लेकिन आपके पास
लक्ष्मी का निवास है या नहीं ये अलग बात है।
ऐसा पैसा जिसे दूसरों की सेवा, परोपकार में बांटने में कष्ट होता हो वह वह सिर्फ धन होता है और जिसे जनसेवा में खुलकर लगाया जाए, वह लक्ष्मी का रूप होता है। 
परिवार में तीन सत्य होते हैं, एक मेरा सत्य, दूसरा आपका सत्य और तीसरा हमारा सत्य। परिवार में इन तीन सत्यों को आत्मसात किया जाना चाहिए। परिवार में तीनों सत्यों का त्रिकोण जुड़ा हुआ है। सूर्य हम सबका दीपक है, जो सत्य है। मेरा सत्य अच्छी बात है, लेकिन दूसरे का सत्य भी है। 
जब तक हमारा सत्य नहीं होगा, तब तक दीपक नहीं जलता। सत्य के साथ प्रेम आवश्यक है। सत्य के साथ करुणा होनी ही चाहिए, यह तीनों चाहिए। जहां तक संभव हो पति सत्य कहे, पत्नी करुणा रखे, मातृ शरीर में करुणा स्वभाविक गुण है, घर में जो बच्चे हों वह प्रेम हो, इससे त्रिकोण पूरा होगा। 
जो परिवार का पालक हो, सुशिक्षित करे, संरक्षित करे और सबका सेवक हो, वही पिता है। जो भी बात साधना के अनुकूल पड़े, श्रोताओं के मार्गदर्शन के अनुकूल पड़ती है उन्हें कहीं से भी ले लेता हूं। सत्य कहीं से भी मिले उसे इस्तेमाल करना चाहिए।
सभी दुखों से मुक्त होने के लिए प्रसन्न रहें, क्योंकि जब परस्पर प्रेम बढ़ेगा तो प्रसन्नता भी बढ़ेगी। प्रेम शब्द के 300 से अधिक पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग मानस में किया गया है।
पूज्य बापू के प्रवचन के अंश...

http://religion.bhaskar.com/article/DG-MB-know-what-is-the-difference-between-money-and-laxmi-morari-bapu-4206749-NOR.html